गीता प्रेस, गोरखपुर >> सत्संग का प्रसाद सत्संग का प्रसादस्वामी रामसुखदास
|
1 पाठकों को प्रिय 321 पाठक हैं |
प्रस्तुत है सत्संग का प्रसाद.....
प्रस्तुत हैं पुस्तक के कुछ अंश
नम्र निवेदन
प्रस्तुत पुस्तक में परम श्रद्धेय स्वामीजी श्रीरामसुखदासजी महाराजद्वारा
बीकानेर में चातुर्मास्य सत्संग सं. 2042 के अवसर पर किये गये कुछ विशेष
प्रवचनों का संग्रह किया गया है। ये प्रवचन सभी साधकों के लिये अत्यन्त
महत्त्वपूर्ण और उपयोगी हैं। कल्याण के इच्छुक सभी भाई-बहनों से मेरा
निवेदन है कि वे इनका अध्ययन-मनन करके लाभ उठाने की चेष्टा करें।
विनीत
प्रकाशक
प्रकाशक
।। ॐ श्रीपरमात्मने नम:।।
सत्संग का प्रसाद खण्डन-मण्डन से हानि
किसी की बात का खण्डन करने से आपस में संघर्ष बढ़ता है। हम
दूसरे के
मत का खण्डन करेगें, जिससे कलह ही बढ़ेगा। अत: हो सके तो दूसरे को
शान्तिपूर्वक अपनी बात का, अपने सिद्धान्त का तात्पर्य बताओ और यदि वह
सुनना नहीं चाहे तो चुप हो जाओ। अपनी हार भले ही मान लो, पर संघर्ष मत
करो।
सरदार शहर के ‘टीचर ट्रेनिंग कालेज’ की एक बात है। वहाँ एक सज्जन ने कहा कि देश का जितना नुकसान हुआ है, वह सब ईश्वरवाद से, आस्तिकवाद से ही हुआ है। मैं चुप रहा तो उन्होंने कहा कि ‘बोलो !’ तो मैंने कहा कि ‘आपने अपना सिद्धान्त कह दिया। आपको मेरा सिद्धान्त मान्य नहीं है और मुझे भी आपका सिद्धान्त मान्य नहीं है। अब बोलने की जगह ही नहीं है और जरूरत भी नहीं है।’ इस तरह हमारे पर कोई आक्रमण कर दे तो सह लो। सहने से, निर्विकार रहने से अपना मत, सिद्धान्त मजबूत होता है, संघर्ष से नहीं। निर्विकार रहने में जो शक्ति है, वह और किसी उपाय में नहीं है। आपसे अपने इष्ट की निन्दा न सही जाय तो वहाँ से उठकर चले जाओ; कान मूँद लो, सुनो मत। कारण कि ऐसे आदमियों को भली बात भी बुरी लगती है। विभीषण को लात मारी ! अत: शान्त रहना बहुत अच्छा है। अपने से जो सहा नहीं जाता, यह अपनी कमजोरी है। यह तो ठाकुरजी लीला करते हैं आपको पक्का बनाने के लिये ! यदि सहा न जाता हो तो भगवान् से प्रार्थना करो कि ‘हे नाथ ! हम सह नहीं सकते। कृपा करो, सहने की शक्ति दो।’
दूसरा हमारे मत का, हमारे इष्ट का खण्डन करे तो हमारे को बुरा लगता है और हम इष्ट का मण्डन करने लगते हैं। परन्तु वास्तव में अपने इष्ट का मण्डन करने से, प्रचार करने से उसका प्रचार नहीं होगा। आप चुप रह जाओ। जैसे, काकभुशुण्डिजी ने पूर्वजन्म में लोमश ऋषि के पास जाकर कहा कि मेरे को रामजी का ध्यान बताओ, तो लोमश ऋषि ने अच्छा पात्र समझकर उन्हें ज्ञान का उपदेश दिया। लोमशजी ने बार-बार ज्ञान की बात कही, पर काकभुशुण्डिजीने उस बात को स्वीकार नहीं किया और अपनी बात कही। इससे लोमशजी को गुस्सा आ गया और उन्होंने शाप दे दिया कि तू कौए की तरह मेरी बात से डरता है; तू कौआ हो जा ! काकभुशुण्डिजी कौआ बन गये। कौआ बनने पर भी उनको न भय लगा, न दीनता आयी- ‘नहिं कछु भय न दीनता आई’ (मानस, उत्तर. 112/8)। लोमशजी ने जब ऐसी सहनशीलता देखी तो उन्होंने प्रेमपूर्वक उसे पास में बुलाया, रामजी का मन्त्र और ध्यान बताया। इस विषय में काकभुशुण्डिजी ने कहा है-
सरदार शहर के ‘टीचर ट्रेनिंग कालेज’ की एक बात है। वहाँ एक सज्जन ने कहा कि देश का जितना नुकसान हुआ है, वह सब ईश्वरवाद से, आस्तिकवाद से ही हुआ है। मैं चुप रहा तो उन्होंने कहा कि ‘बोलो !’ तो मैंने कहा कि ‘आपने अपना सिद्धान्त कह दिया। आपको मेरा सिद्धान्त मान्य नहीं है और मुझे भी आपका सिद्धान्त मान्य नहीं है। अब बोलने की जगह ही नहीं है और जरूरत भी नहीं है।’ इस तरह हमारे पर कोई आक्रमण कर दे तो सह लो। सहने से, निर्विकार रहने से अपना मत, सिद्धान्त मजबूत होता है, संघर्ष से नहीं। निर्विकार रहने में जो शक्ति है, वह और किसी उपाय में नहीं है। आपसे अपने इष्ट की निन्दा न सही जाय तो वहाँ से उठकर चले जाओ; कान मूँद लो, सुनो मत। कारण कि ऐसे आदमियों को भली बात भी बुरी लगती है। विभीषण को लात मारी ! अत: शान्त रहना बहुत अच्छा है। अपने से जो सहा नहीं जाता, यह अपनी कमजोरी है। यह तो ठाकुरजी लीला करते हैं आपको पक्का बनाने के लिये ! यदि सहा न जाता हो तो भगवान् से प्रार्थना करो कि ‘हे नाथ ! हम सह नहीं सकते। कृपा करो, सहने की शक्ति दो।’
दूसरा हमारे मत का, हमारे इष्ट का खण्डन करे तो हमारे को बुरा लगता है और हम इष्ट का मण्डन करने लगते हैं। परन्तु वास्तव में अपने इष्ट का मण्डन करने से, प्रचार करने से उसका प्रचार नहीं होगा। आप चुप रह जाओ। जैसे, काकभुशुण्डिजी ने पूर्वजन्म में लोमश ऋषि के पास जाकर कहा कि मेरे को रामजी का ध्यान बताओ, तो लोमश ऋषि ने अच्छा पात्र समझकर उन्हें ज्ञान का उपदेश दिया। लोमशजी ने बार-बार ज्ञान की बात कही, पर काकभुशुण्डिजीने उस बात को स्वीकार नहीं किया और अपनी बात कही। इससे लोमशजी को गुस्सा आ गया और उन्होंने शाप दे दिया कि तू कौए की तरह मेरी बात से डरता है; तू कौआ हो जा ! काकभुशुण्डिजी कौआ बन गये। कौआ बनने पर भी उनको न भय लगा, न दीनता आयी- ‘नहिं कछु भय न दीनता आई’ (मानस, उत्तर. 112/8)। लोमशजी ने जब ऐसी सहनशीलता देखी तो उन्होंने प्रेमपूर्वक उसे पास में बुलाया, रामजी का मन्त्र और ध्यान बताया। इस विषय में काकभुशुण्डिजी ने कहा है-
भगति पच्छ हठ करि रहेउँ दीन्हि महारिषि साप।
मुनि दुर्लभ बर पायउँ देखहु भजन प्रताप।।
मुनि दुर्लभ बर पायउँ देखहु भजन प्रताप।।
(मानस, उत्तर.114 ख)
भजन क्या था ? सहनशीलता, शान्त रहना, इस भजन के प्रताप से मुनि ने वरदान
दिया कि तुम्हारे रहने के स्थान से योजनभर तुम्हारे पास माया नहीं आयेगी।
अत: शान्त रहने में बहुत बड़ी शक्ति है।
एक मार्मिक बात है कि आपके इष्ट का खण्डन होता है तो वह आपके मण्डन करने से नहीं मिटेगा। आप मण्डन करेंगे तो दूसरा और तेजी से खण्डन करेगा। मण्डन करने में एक मार्मिक बात है कि आप अपने इष्ट देव को कमजोर मानते हैं। इष्ट ऐसा कमजोर नहीं है कि उसको हमारी सहायता से कोई बल मिलेगा। हम अपने इष्ट का जितना पक्ष लेते हैं, उतना ही हम अपने इष्ट को कमजोर मानते हैं। हम जितना ही अपने इष्ट को दूसरों पर लादना चाहते हैं, दूसरों को मनवाना चाहते हैं, इष्टपर हमारी भक्ति उतनी ही कम होती है। आपको दीखे या न दीखे, पर है ऐ, ही बात।
हमारे में पहली कमी तो यह है कि हम अपनी बड़ाई चाहते हैं। इससे इष्ट का निन्दा सही नहीं जाती, उसको हम सह नहीं सकते। परन्तु साधक को पता नहीं लगता कि मुझे किस बात का दु:ख हो रहा है। हम अपने को इष्ट का मण्डन करते हैं। उस मण्डन में हम अपने इष्ट को कमजोर मानते हैं। कैसे ? यदि हम अपने इष्ट को कमजोर न मानें तो क्या हमारे इष्ट को मण्डन की आवश्यकता है ? खण्डन करने वाले के सामने अपने इष्ट का मण्डन करके क्या अपने इष्ट की सहायता करते हैं ? अगर सहायता करते हैं तो हमने इष्ट को कमजोर ही सिद्ध किया !
अपने इष्ट की निन्दा नहीं सुन सकते तो मत सुनो, पर हमारी सहायता से उनको बल मिल जायगा, हम अपने इष्ट को सिद्ध कर देंगे- यह बात नहीं है। यदि वह खण्डन करने वाला व्यक्ति हमारी बात सुनना चाहे तो सुनाओ; क्योंकि वह सुनना चाहेगा, तभी काम ठीक होगा। जैसे, आप सुनना चाहते हैं तो मैं आपको व्याख्यान सुनाता हूँ; परन्तु मैं बाजार में जाकर सुनाऊँ तो कोई भी नहीं सुनेगा। जो सुनने के लिये तैयार नही है, उसको सुनाने से अपने इष्ट का अपमान ही होगा। उसके सामने हम जितना ही अपने इष्ट का मण्डन करेंगे, उतनी ही उसकी खण्डन की वृत्ति तेज होगी और उसकी हमारे इष्ट पर अश्रद्धा होगी।
एक गहरी बात है कि सब परमात्मा के अंश होने से जैसे हम अपना अपमान नहीं सह सकते, ऐसे ही खण्डन करनेवाला भी अपना अपमान नहीं सह सकता। उसकी बात कटेगी तो उसको बुरा लगेगा ही। बुरा लगेगा तो उसके भीतर हमारे इष्ट के खण्डन की अनेक युक्तियाँ पैदा होंगी, खण्डन की युक्तियों का प्रवाह पैदा होगा। फिर उसमें सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय का विचार नहीं रहेगा।
एक जल्पकथा होती है, एक वितण्डाकथा होती है और एक वादकथा होती है। जल्पकथा वह होती है, जिसमें वक्ता अपनी बात कहता चला जाय। वितण्डाकथा वह होती है, जिसमें एक सोचता है कि उसकी बात का खण्डन कैसे हो और दूसरा भी यही सोचता है कि इसकी बात का खण्डन कैसे हो ? यह वितण्डावाद सबसे नीचा कहा गया है। वादकथा वह होती है, जिसमें दोनों शान्ति चित्त से सत्य-असत्य का निर्णय करते हैं। सत्य क्या है ? वास्तविकता क्या है ? इस बात को समझने के लिये दोनों शान्ति चित्त से विचार करते हैं। इस वादकथा को भगवान् ने अपना स्वरूप बताया है- ‘वाद: प्रवदतामहम्’ (गीता 10/32)।
आज जो एक-दूसरे को दबाकर अपनी उन्नति चाहते हैं कि इससे काम ठीक हो जायगा- इसका नतीजा बड़ा भयंकर होगा। दबाने से शक्ति दबती नहीं है। खण्डन करने वाला भी परमात्मा का अंश है, वह अपना तिरस्कार कैसे सहेगा ? सह नहीं सकेगा, उलटे वह हमारे इष्टा का, हमारे मत का और जोर से खण्डन करेगा। उस जोरदार खण्डन में हम ही निमित्त होते हैं। मैंने कई बार व्याख्यान में कहा है कि अपने मत के मण्डन में यदि दूसरे के मत का खण्डन करते हैं तो वास्तव में हम दूसरे को अपने मत के खण्डन का निमन्त्रण देते हैं कि तुम भी हमारे मत का खण्डन करो ! अत: इससे कोई फायदा नहीं होगा, प्रत्युत दोनों का नुकसान होगा।
एक मार्मिक बात है कि आपके इष्ट का खण्डन होता है तो वह आपके मण्डन करने से नहीं मिटेगा। आप मण्डन करेंगे तो दूसरा और तेजी से खण्डन करेगा। मण्डन करने में एक मार्मिक बात है कि आप अपने इष्ट देव को कमजोर मानते हैं। इष्ट ऐसा कमजोर नहीं है कि उसको हमारी सहायता से कोई बल मिलेगा। हम अपने इष्ट का जितना पक्ष लेते हैं, उतना ही हम अपने इष्ट को कमजोर मानते हैं। हम जितना ही अपने इष्ट को दूसरों पर लादना चाहते हैं, दूसरों को मनवाना चाहते हैं, इष्टपर हमारी भक्ति उतनी ही कम होती है। आपको दीखे या न दीखे, पर है ऐ, ही बात।
हमारे में पहली कमी तो यह है कि हम अपनी बड़ाई चाहते हैं। इससे इष्ट का निन्दा सही नहीं जाती, उसको हम सह नहीं सकते। परन्तु साधक को पता नहीं लगता कि मुझे किस बात का दु:ख हो रहा है। हम अपने को इष्ट का मण्डन करते हैं। उस मण्डन में हम अपने इष्ट को कमजोर मानते हैं। कैसे ? यदि हम अपने इष्ट को कमजोर न मानें तो क्या हमारे इष्ट को मण्डन की आवश्यकता है ? खण्डन करने वाले के सामने अपने इष्ट का मण्डन करके क्या अपने इष्ट की सहायता करते हैं ? अगर सहायता करते हैं तो हमने इष्ट को कमजोर ही सिद्ध किया !
अपने इष्ट की निन्दा नहीं सुन सकते तो मत सुनो, पर हमारी सहायता से उनको बल मिल जायगा, हम अपने इष्ट को सिद्ध कर देंगे- यह बात नहीं है। यदि वह खण्डन करने वाला व्यक्ति हमारी बात सुनना चाहे तो सुनाओ; क्योंकि वह सुनना चाहेगा, तभी काम ठीक होगा। जैसे, आप सुनना चाहते हैं तो मैं आपको व्याख्यान सुनाता हूँ; परन्तु मैं बाजार में जाकर सुनाऊँ तो कोई भी नहीं सुनेगा। जो सुनने के लिये तैयार नही है, उसको सुनाने से अपने इष्ट का अपमान ही होगा। उसके सामने हम जितना ही अपने इष्ट का मण्डन करेंगे, उतनी ही उसकी खण्डन की वृत्ति तेज होगी और उसकी हमारे इष्ट पर अश्रद्धा होगी।
एक गहरी बात है कि सब परमात्मा के अंश होने से जैसे हम अपना अपमान नहीं सह सकते, ऐसे ही खण्डन करनेवाला भी अपना अपमान नहीं सह सकता। उसकी बात कटेगी तो उसको बुरा लगेगा ही। बुरा लगेगा तो उसके भीतर हमारे इष्ट के खण्डन की अनेक युक्तियाँ पैदा होंगी, खण्डन की युक्तियों का प्रवाह पैदा होगा। फिर उसमें सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय का विचार नहीं रहेगा।
एक जल्पकथा होती है, एक वितण्डाकथा होती है और एक वादकथा होती है। जल्पकथा वह होती है, जिसमें वक्ता अपनी बात कहता चला जाय। वितण्डाकथा वह होती है, जिसमें एक सोचता है कि उसकी बात का खण्डन कैसे हो और दूसरा भी यही सोचता है कि इसकी बात का खण्डन कैसे हो ? यह वितण्डावाद सबसे नीचा कहा गया है। वादकथा वह होती है, जिसमें दोनों शान्ति चित्त से सत्य-असत्य का निर्णय करते हैं। सत्य क्या है ? वास्तविकता क्या है ? इस बात को समझने के लिये दोनों शान्ति चित्त से विचार करते हैं। इस वादकथा को भगवान् ने अपना स्वरूप बताया है- ‘वाद: प्रवदतामहम्’ (गीता 10/32)।
आज जो एक-दूसरे को दबाकर अपनी उन्नति चाहते हैं कि इससे काम ठीक हो जायगा- इसका नतीजा बड़ा भयंकर होगा। दबाने से शक्ति दबती नहीं है। खण्डन करने वाला भी परमात्मा का अंश है, वह अपना तिरस्कार कैसे सहेगा ? सह नहीं सकेगा, उलटे वह हमारे इष्टा का, हमारे मत का और जोर से खण्डन करेगा। उस जोरदार खण्डन में हम ही निमित्त होते हैं। मैंने कई बार व्याख्यान में कहा है कि अपने मत के मण्डन में यदि दूसरे के मत का खण्डन करते हैं तो वास्तव में हम दूसरे को अपने मत के खण्डन का निमन्त्रण देते हैं कि तुम भी हमारे मत का खण्डन करो ! अत: इससे कोई फायदा नहीं होगा, प्रत्युत दोनों का नुकसान होगा।
|
अन्य पुस्तकें
लोगों की राय
No reviews for this book